
कौन जीतेगा ?? विरासत में मिली सियासत की दौड़
दिग्गी का पुत्रमोह चर्चा में
सिंधिया के जाने से बीजेपी कांग्रेस को कितना फायदा, कितना नुकसान
जनपथ टुडे, मार्च 13,2020, पिछले 3 मार्च से प्रदेश में मचा राजनीतिक बबाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। जहां सिंधिया ने बीजेपी से राज्यसभा सांसद हेतु पर्चा दाखिल किया वहीं दिग्विजय सिंह ने भी कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में पर्चा भरा।
प्रदेश में फैले पूरे राजनीतिक भूचाल की शुरुआत इसी राज्यसभा सांसद के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार के चयन को लेकर हुई बताई जाती है। जाहिर तौर पर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के विधायकों की संख्या से एक राज्यसभा सांसद जीत सकता है पर दूसरे को जीतने के लिए संख्या कुछ कम पड़ती है। गौरतलब है कि दिग्विजय सिंह पहले से प्रदेश से ही राज्यसभा सांसद है और फिर से वे इस पद पर खुद की दावेदारी के अलावा किसी और को चुना जाए ये उन्हें मंजूर नहीं था वहीं पिछला लोकसभा चुनाव हार चुके सिंधिया भी खुद को राजनीति में सक्रिय रखने के लिए इस पद पर काबिज होने की इचछा रखते थे किन्तु पार्टी से हरी झंडी नहीं मिलने से नाराज़ सिंधिया पार्टी द्वारा कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने के अठारह माह बाद तक पार्टी द्वारा किसी और को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाए जाने, उन्हें कोई महत्वपूर्ण जवाबदारी, संगठन और सत्ता में न मिलने से खुद को उपेक्षित महसूस करते हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया ने प्रदेश की सरकार को संकट में डालते हुए भाजपा का दामन थाम लिया।
प्रदेश की राजनीति में सिंधिया और दिग्गी का आपसी मनमुटाव सर्वविदित है, मध्यप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों में सिंधिया के व्यापक दौरो और पार्टी के प्रचार के बाद प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने में सिंधिया की भूमिका को कोई नकारता नहीं है वहीं उनका चुनाव में प्रचार समिति का प्रमुख बनाया जाना ये और प्रदेश में सरकार बनने में सिंधिया की सफल हुई भूमिका कहीं न कहीं दिग्विजय सिंह के विधायक पुत्र जयवर्धन को आगे आने में बाधा न बने ये भी इन दोनों नेताओं के बीच एक लकीर जरूर खींचता है।
विरासत में मिली सियासत की दौड़
जयवर्धन सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों की राजनीति उनको अपने पिता से विरासत में मिली है और दोनों के ही पिता कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने गिने जाते थे, फर्क सिर्फ इतना है कि जयवर्धन को आज भी राजनीति की कोचिंग देने उनके पिता का साथ है वहीं सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया की अचानक एक हादसे में मौत हो गई तब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उनकी विरासत को सम्हाला और एक लंबे अरसे से अकेले बढ़ते हुए उन्होंने खुद को लोकप्रिय युवा नेता के रूप में स्थापित भी किया और उतना ही वे गांधी परिवार के विश्वसनीय करीबी भी रहे। जबकि कमलनाथ की सरकार में दिग्गी के पुत्र मंत्री है फिर भी वे प्रदेश की राजनीति में सिंधिया के मुकाबले में बहुत पीछे नज़र आते है।
राजनीति में पुत्रमोह कोई नया शब्द नहीं है इसके लिए कई बड़े खतरे भी उठाएं जाते रहे है और काफी कुछ दाव पर भी लगाया जाता रहा है और शायद इस समय प्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता भी किसी ऐसे ही पुत्र मोह की चपेट में नज़र आता है।
सिंधिया के भाजपा में जाने से भले ही जयवर्धन सिंह और सिंधिया के रास्ते अलग अलग हो गए हो पर इनकी आपसी लड़ाई आगे भी चलती रहेगी और प्रदेश की राजनीति में इसको आगे भी देखा जाता रहेगा इन दोनों के बीच जारी ये राजनीति की दौड़ अभी सालो जारी रहेगी और जीत हार का निर्णय होने में बहुत समय लगेगा। हालांकि ये भी सच है कि अभी की जो राजनीतिक स्थितियां है उसमे सिंधिया जयवर्धन से बहुत आगे है पर दिग्विजय सिह की राजनीतिक चालो से अभी काफी पीछे है और ये ही सिंधिया की मजबूरी रही की अब कोई दूसरा रास्ता उन्हें अपनी राजनीतक दौड़ के लिए चुनना जरूरी हो गया था।