म.प्र.2023 विधानसभा चुनाव : आदिवासी मतदाताओं की भूमिका करेगी चमत्कार (पार्ट -1)

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2018 ने आदिवासियों के दम पर लौटी थी कांग्रेस की सत्ता

150 सीटें जिता सकते है आदिवासी वोटर

71 साल में 13 दिन के लिए बना आदिवासी मुख्यमंत्री

2023 के चुनाव में क्या होगी गोगापा की भूमिका

 

मध्यप्रदेश में बनने वाली सरकार के पीछे प्रदेश के आदिवासी मतदाताओं का साथ हमेशा रहा है। आदिवासी अंचल की सीटों पर जिस दल को बढ़त मिलती है वहीं दल प्रदेश की सत्ता पर काबिज होती रही है। विशेषकर प्रदेश के आगामी 2023 के विधानसभा चुनाव में इस वर्ग के मतदाताओं को भूमिका प्रदेश में राजनैतिक चमत्कार करेगा। प्रदेश में आदिवासियों की न सिर्फ सख्य बढ़ी है बल्कि इस समाज में शिक्षा और जागरूकता भी बढ़ी है जो अब चुनाव में अपनी सार्थक भूमिका को साबित कर सकते है। वहीं देश और प्रदेश में पिछले दिनों दलित और आदिवासियों के साथ घटी घटनाओं से समाज में चिंता है और आदिवासी समाज अपने प्रजातांत्रिक अधिकार का उपयोग कर राजनैतिक दलों और देश को नया सन्देश देना चाहता है। वहीं प्रदेश की राजनीति ने लंबे समय से सक्रिय आदिवासी संगठन और राजनैतिक दल जो पीली क्रांति का विस्तार कर रहे है वे व्यवहारिक तौर पर काफी मजबूत हुए है, जिसका असर आगामी चुनाव में जरूर दिखाई देगा।
– पंकज शुक्ला

जनपथ टुडे, 20 सितंबर 2023, मध्य प्रदेश में होने वाले आगामी 2023 विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी और कांग्रेस अंतिम दौर की तैयारियों में जुटी हुई है। दोनों ही पार्टिया अपने परंपरागत मतदाताओं पर नज़र रखे हुए है। वहीं सभी वर्गो के मतदाताओं को साधने के प्रयास किए जा रहे है। मध्यप्रदेश में सबसे महत्वपूर्ण है आदिवासी मतदाता और दोनों ही पार्टियां इस वर्ग के मतदाताओं को अपने पक्ष में करने का हर प्रयास कर रही है। यह अलग बात है कि पिछले 75 सालों में दोनों पार्टियों को सरकार बनाने को भरपूर अवसर मिला तब भी आदिवासी क्षेत्रों और मतदाताओं की स्थिति अन्य क्षेत्रों और वर्गो से बदतर ही बनी हुई है। लंबे समय तक कांग्रेस आदिवासी वर्ग के समर्थन से प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही और भाजपा को प्रदेश की सत्ता तभी मिल पाई जब उसे आदिवासी मतदाताओं का समर्थन मिला और सुरक्षित अजजा सीटों पर भाजपा की बढ़त हुई। साफ तौर पर मध्यप्रदेश की सत्ता उसी पार्टी के हाथों में होती है जिसका साथ आदिवासी मतदाता देता है। इसके बाद भी आजतक किसी भी आदिवासी विधायक को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया गया, प्रदेश में मात्र 13 दिन के लिए गोंड राजा नरेशचंद्र सिंह एक्सिडेंटल मुख्यमंत्री जरूर रहे। कांग्रेस में दिलीप सिंह भूरिया, अजित जोगी तो भाजपा में फग्गन सिंह कुलस्ते के बढ़ते कद को दबाने की कोशिश की जाती रही है और इनके सामने इसी समाज के दूसरे नेताओं को प्रतिद्वंदी बनाकर खड़ा कर दिया जाता है।

71 साल में 13 दिन रहा आदिवासी मुख्यमंत्री

13 मार्च 1952 से अस्थित्व में आई मध्यप्रदेश सरकार के अब तक करीब 71 वर्षों के कार्यकाल में मात्र 13 दिनों के लिए एक आदिवासी को मुख्यमंत्री पद पर रहने का मौका मिला। प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद नारायण के इस्तीफे के बाद राजा नरेशचंद्र मुख्यमंत्री बने। मार्च 1969 में राजा नरेशचंद्र सिंह ने तेरह दिनों तक मुख्यमं त्री रहे। उनका कार्यकाल 13 से 26 मार्च 1969 तक रहा। तकनीकी रूप से नरेशचंद्र सिंह मध्यप्रदेश के पहले आदिवासी मुख्यमंत्री थे। सारंगढ़ रियासत के इस गौंड राजा को प्रदेश के 71 साल के इतिहास में 13 दिन मुख्यमंत्री रहने का मौका मिला, जबकि आज भी प्रदेश में बिना आदिवासियों के समर्थन के कोई भी पार्टी सरकार नहीं बना सकती है।

विधानसभा चुनाव 2003 और 2018 के चुनाव के परिणाम को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता हैं कि जब-जब आदिवासी मतदाता ने करवट ली है, तब-तब मौजूदा सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा है। 2003 के चुनाव में दिग्विजय सिंह को सत्ता से बाहर होना पड़ा था, वहीं 2018 में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। 2018 में कांग्रेस का वनवास खत्म हुआ और कमलनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

2003 में सुरक्षित अजजा की 41 सीटों में से 37 सीटो पर बीजेपी को जीत मिली, नतीजा दिग्विजय सिंह की सरकार सत्ता से बाहर हो गयी और सत्ता पर बीजेपी काबिज हुई।

साल 2008 के चुनाव में भी आदिवासियों ने भाजपा का साथ दिया। इस चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 41 से बढ़कर 47 हो गयी. बीजेपी ने 47 में से 29 सीटों पर जीत हासिल की और कांग्रेस फिर सत्ता से बाहर रही।

विधानसभा चुनाव 2013 में बीजेपी फिर आदिवासी वोटों को अपने पक्ष में रखने में सफल रही। 47 में से 31 सीटों पर बीजेपी जीती और प्रदेश में तीसरी बार बीजेपी ने सरकार बनाई।

2018 में आदिवासियों के बूते कांग्रेस की 18 माह की सरकार बनी

2018 के चुनाव में इस आदिवासी वोट बैंक ने करवट ली और फिर प्रदेश की सत्ता में परिवर्तन हुआ आदिवासी मतदाता कांग्रेस का साथ देता नजर आया. इस चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से कांग्रेस ने 30 सीटों पर जीत दर्ज की, एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार ने जीती वहीं बीजेपी के खाते में केवल 16 सीटें आई और बीजेपी 15 साल बाद सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस अपना लंबा वनवास खत्म कर सत्ता में वापस लौटी आदिवासी मतदाताओं के बूते कांग्रेस ने कमलनाथ के हाथों में प्रदेश की कमान सौंपी। कमलनाथ की सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत कर दी और नाराज विधायकों के साथ उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया इस तरह से आदिवासी मतदाताओं के समर्थन के बाद भी कांग्रेस की सरकार मात्र 18 माह ही चल सकी।

वर्तमान में प्रदेश में कुल 47 विधानसभा सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है। प्रदेश में इन्हें मिलाकर 84 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां आदिवासी मतदाताओं का प्रभाव है। प्रदेश में कुल 230 विधानसभा सीट है जिसमें ये 84 सीटे विधानसभा चुनाव जीतने वाली पार्टी की सरकार बनाने की ओर कदम बढ़ाती है। यही वजह है कि कोई भी पार्टी आदिवासियों को साधे बिना सरकार नहीं बना सकती।

आगे है…..

प्रदेश की 150 सीटें जीता सकते है आदिवासी वोटर”…..

2023 के चुनाव में क्या होगी गोगापा की भूमिका…..

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