ईद क़ौमी यकजहती का दिन भी – इरफ़ान मलिक
जनपथ टुडे, डिंडोरी, 11 अप्रैल 2024, आज़ पूरे देश में ईद मनाई जा रही है। इस त्योहार को देख कर महसूस होता है कि ईद सिर्फ़ एक त्योहार ही नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की क़ौमी यकजहती का भी दिन है और हिंदुस्तानी तहज़ीब का अहम पहलू, हिंदुस्तान जो मुख़्तलिफ़ मज़हब और अक़ायद का गहवारा है, आज पूरी दुनिया हमारे इख़्तिलाफ़ – ऐ-रंग-ओ-बू के इस चमन को रश्क़ से देखती है। हम दुनिया को पैग़ाम देते है कि हमारा मुल्क सांझी विरासत का नायाब गहना है, मुहब्बत हमारी पहचान है,हर एक त्यौहार मिलजुल कर मनाना हमारी तहज़ीब है यही बात कि दुनिया हमारे मुल्क को एक अज़ीम मुल्क मानती हैं।
ईद और कई रंग लेकर आती है, किसी के लिए खुशी, किसी के लिए इंतजार, कहीं पायलों की छम-छम तो कहीं आंख पुरनम। ईद में सबसे पहली खुशी तो होती है ईद के चांद की, हर आंख आसमान पर होती है, आपको चांद दिखाई दिया? ये भी किस्मत की बात मानी जाती है क्योंकि इस महीने का चांद पहले दिन बस कुछ मिनटों के लिए ही नजर आता है। शायर ‘शुजा खावर’ ने ईद के बहाने, चांद, महबूब और रमजान का महीना, इन तीनों बातों को किस खूबसूरती के साथ दो पक्तियों में पिरो दिया है:
आप इधर आए, उधर दीन और ईमान गए
ईद का चांद नजर आया तो रमजान गए
ईद का चांद निकलते ही माहौल में एकदम से एक रौनक आ जाती है, जैसे किसी इंतजार करते प्लेटफार्म पर ट्रेन की पहली झलक। चांद-रात के बाजार, मेंहदी, नए कपड़े, हंसी-ठहाके, इन सबके बीच किसी आंख की मायूसी भी इसी ईद का हिस्सा होती है। परवीन शाकिर इस मायूसी को इस तरह बयां करती हैं:
गए बरस की ईद का दिन क्या अच्छा था
चांद को देख के उसका चेहरा देखा था…..
सभी त्योहारों की तरह ईद में भी ‘इंतजार’ की कसक कुछ ज्यादा ही गहरी हो जाती है। गली, मुहल्लों, छतों, चौबारों में दौड़ती-फिरती खुशियों के बीच कुछ खिड़कियां, कुछ दरवाजे, मुन्तजिर रहते हैं।
त्यौहार और गरीबी बहुत अहम मौज़ू है जिसे प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में हमीद, चिमटा खरीदकर चिमटे को नहीं, जरुरत को अपना खिलौना बना लेता है।
ईद त्योहार का सबसे दिलकश रंग है ‘गले-मिलना..
हमारे देश में ईद और होली, दो ऐसे त्योहार हैं जो मौका देते हैं दुश्मनी खत्म करने का, गले मिलने का, सांप्रदायिक सौहार्द का, नेक इरादों का, अमन और शांति का, इस खासियत का बयान है ये त्यौहार आज है अहले-मोहब्बत का मुकद्दस त्योहार रंग क्यूं लाए न मासूम दुआओं का असर ……
इसी के साथ वर्तमान हालात पर भी एक नजर डालिए, दो शेर समाज के दो रंगों की भरपूर तस्वीर खींचते नजर आते हैं:
मिलके होती थी कभी ईद भी दीवाली भी
अब ये हालत है कि डर-डर के गले मिलते हैं
जिस घर को डंस लिया है तास्सुब के नाग ने
उस घर में अबकी ईद की खुशबू न आएगी
और इसी बीच सच्चाई का वो पैगाम जो सूफी परंपरा ने हमें दिया और लाख आंधियां चलें हमारी विरासत का ये दिया हमेशा जलता रहेगा. आप सबको एक बार फिर ईद की ढेरों मुबारकबाद.