कर्बला का संदेश

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जनपथ टुडे, डिंडोरी, 9 अगस्त 2022, इस्लामी भाईयों के द्वारा माहे मुहर्रम का योमे आशूरा मनाया जा रहा है और कर्बला के वाकये को याद किया जाता है, आइए जानते हैं कर्बला के संदेश को –

कर्बला जिहाद हैं अन्याय और असत्य के खिलाफ

– सौ बार ज़िंदगी मिले और सौ बार मार दिया जाऊं तब भी हुसैन बिन अली अ.स۔ से मुंह नहीं मोड़ सकता -मुस्लिम इब्ने अक़ील अ.स.

-चचा जान! आपकी नुसरत में आए तो मौत शहद से ज़्यादा शीरीं है -क़ासिम इब्ने हसन अल मुज्तबा अ.स.

– बाबा जान! जब हम हक़ पर हैं तो मौत हमसे आ मिले, या हम मौत से जा मिलें, कोई फर्क़ नहीं पड़ता -अली अकबर इब्ने हुसैन अ.स.

-भाई न रहे और हम ज़िंदा रहें? ऐसी ज़िंदगी बेकार है -अब्बास इब्ने अली अ.स.

– ज़िल्लत की ज़िंदगी जीने से इज़्ज़त की मौत बेहतर है – हुसैन बिन अली अ.स.

पैगंबर मोहम्मद साहब के जांनिसार (वंशजों) ने मौत के दरवाज़े पर खड़े होकर जो कहा है वो तारीख़ (इतिहास) का शाहकार (स्वर्णिम अध्याय) है। 13 साल का भतीजा, 18 साल का बेटा, 32 साल का सौतेला भाई, 28 साल का चचेरा भाई और ख़ानदान का साठ साल का बूढ़ा सरदार, एक ज़बान में मौत और हयात का फलसफा ही नहीं बता रहे हैं बल्कि रिश्तों की अहमियत भी समझा रहे हैं। सबके सामने जीने का रास्ता खुला है। मुस्लिम इब्ने अक़ील से ज़ियाद ने कहा कि हुसैन से पलट जाओ तो जान की अमान है। अब्बास बिन अली से शबे आशूर (क़त्ल की रात) शिम्र ने आकर कहा कि तुम्हारी मां मेरे क़बीले की है। मेरे साथ आओ तो तुम्हें और तुम्हारे भाईयों को जान की अमान है। क़ासिम बिन हसन महज़ तेरह साल के हैं। मैदान में जाने की ज़िद पर न अड़ते तो बच्चों के दरमियान शायद ज़िंदा रह जाते। अली अकबर हमशबीहे नबी ए करीम सअ हैं। नबी से मुशाबेहत के चलते शायद छोड़ दिए जाते। इमाम हुसैन अस अगर बैयत कर लें तो सारा मसला ही निबट जाए। लेकिन कर्बला वो यूनिवर्सिटी है जहां हक़ और बातिल, रिश्तों की अहमियत, क़ुर्बानी का जज़्बा और सत्य के रास्ते में कोई भी क़ीमत चुकाने का दर्स पढ़ाया जाता है। शबे आशूर (क़त्ल की रात) इमामे आली मक़ाम अपने साथियों को जाने का मौक़ा देते हैं। कहते हैं आदा मेरी जान के दुश्मन हैं, तुम क्यों हलाक़ होते हो? इमाम ने चराग़ बुझाया कि शायद शर्म में साथी न जाएं। चराग़ बुझा लेकिन कोई अंसारे हुसैन छोड़कर न गया। आशूर को कर्बला ने इंसानी फितरतें बदलती देखीं तो रिश्तों पर जांनिसारी की तारीख़ की भी शाहिद (गवाह) बनी। फिर दुनिया में जंग बहुत हुईं लेकिन दूसरी कर्बला न हुई। छ महीने के नन्हे बच्चे से लेकर साठ साल के बूढ़े तक कर्बला की आग़ोश में सो गए मगर अपने उसूलों से पीछे न हटे। ख़ैर, हमारे लिए इमाम हुसैन दो कारनामे एक साथ कर गए। एक तो उन्होंने हमारे दिलों से मौत का डर निकाल दिया दूसरा, हुसैन और असहाबे हुसैन के सिवा दिलों में अब किसी का ग़म न रहा। मां, बाप, भाई, बहन, बेटा, बेटी कोई गुज़र जाए, कर्बला ज़हन में आते ही हर ख़ुशी छोटी लगती है और हर ग़म कम नज़र आता है। मौत सबकी बरहक़ (निश्चित) है मगर इस दुनिया में मरकर भी कोई ज़िंदा नहीं रहा कर्बला वालों की तरह…

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