योमे आशूरा (मुहर्रम) – इरफ़ान मलिक
जनपथ टुडे, नया इस्लामी साल शुरू हो गया है और इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक मोहर्रम का महीना चल रहा है. मुस्लिम समाज में ये महीना काफी पाक माना जाता है और आज़ इस महीने का दसवां दिन है। इस 10 वें दिन को योमे आशुरा भी कहा जाता है इस दिन नवासे ए रसूल हजरत हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हा की कर्बला की सरजमीं पर शहादत हुई है। बताते चलें हज़रत इमाम हुसैन इस्लाम के पैंगम्बर मोहम्मद साहब के नवासे थे। उन्होंने इस्लाम और मानवता की रक्षा के लिए अपनी अपने परिवार और दोस्तों की कुर्बानी दे दी। इसी शहादत की याद में आशिके हुसैन (रजि) मुसलमान ताजिया निकालते हैं। यह ताजिया उन शहीदों का प्रतीक माना जाता है। इस ताजिया के साथ जुलूस निकालकर फिर उसे प्रतीकात्मक रूप से कर्बला ले जाया जाता है। जैसे इमाम हुसैन का मकबरा इराक में आज भी है। इसीलिए दुनिया भर के मुसलमान के लिए यह महत्व का महीना है। मुहर्रम का 10वां दिन आशूरा का दिन और हुसैन और उनके जांनिसार साथियों की सबक आमोज शहादत को याद करने का दिन है।
आशूरा का दिन मुसलमानों के लिए भी महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस दिन यह बताया जाता है कि इस दिन मूसा और उसके अनुयायियों ने मिस्र के फिरौन पर विजय प्राप्त की थी।
ऐसे मनाया जाता है ये दिन
मुहर्रम को मुसलमानों के द्वारा हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद करने का दिन माना गया है, जो मुहर्रम की चांद रात से शुरू होता है और योमे आशूरा (दस मुहर्रम) तक जारी रहता है 10 मोहर्रम 61 हिजरी में इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने अंसार, अक़रबा, भांजे, भतीजे और बेटों की मक़तल में बिखरी लाशों के बीच खड़े होकर जो पैग़ाम दिया उसने तारीख़े इंसानियत को बदल कर रख दिया. लोगों के दिलों में इस अज़ीम क़ुर्बानी ने वो जगह बनाई जिसकी मिसाल तारीख़ आलमों आदम में नहीं मिलती। यही एक ऐसा वाक़्या है जिससे आलम की तमाम चीज़ें मुतास्सिर हुयीं. आसमान मुतास्सिर हुआ, ज़मीन मुतास्सिर हुयी, सूरज, चांद, सितारे मुतास्सिर हुए. यहां तक की कायनात की हरेक शय मुतास्सिर हुई
नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का पैग़ाम देती है कर्बला
इमाम हुसैन अलैहिस्साम का ये ईसार और क़ुर्बानी तारीख़े इस्लाम का एक ऐसा दरख़्शां बाब है जो रहरवाने मंज़िले शौक़ व मुहब्बत के लिए एक आला तरीन नमूना है. इज्तेमाई क़ुर्बानी अल्लाह की राह में पेश करके हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने रहती दुनिया तक हर पाकीज़ा फ़िक्र और तहरीक को कर्बला से वाबस्ता कर दिया और ये पैग़ाम दिया कि जब भी जहां भी इंतेशार, ज़ुल्म, ज़्यादती, इंतेहापसंदी, शिद्दतपसंदी, क़त्लो ग़ारतगरी और दहशतगर्दी सर उठाए तो तुम ख़ामोश मत बैठना. तुम ये मत सोचना कि तुम इन बातिल ताक़तों के सामने कमज़ोर हो, तादाद में कम हो और मुक़ाबला नहीं कर सकते. झूठ और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ तुम क़याम करना. तुम और तुम्हारी हक़परस्ती बातिल और ज़ालिम ताक़तों को शिकस्त देने में कामयाब हो जाएगी….. लोग यही कहते हैं कि न्याय के पक्ष में संघर्ष करने वाले लोगों की अंतरात्मा में इमाम हुसैन आज भी ज़िन्दा हैं, मगर यजीद भी अभी कहां मरा है ? यजीद अब एक व्यक्ति का नहीं, एक अन्यायी और बर्बर सोच और मानसिकता का नाम है। दुनिया में जहां कहीं भी आतंक, अन्याय, बर्बरता, अपराध और हिंसा है, यजीद वहां-वहां मौज़ूद है। यही वज़ह है कि हुसैन हर दौर में प्रासंगिक हैं।
मुहर्रम का महीना उनके मातम में अपने हाथों अपना ही खून बहाने का नहीं, उनके बलिदान से प्रेरणा लेते हुए मनुष्यता, समानता,अमन,न्याय और अधिकार के लिए उठ खड़े होने का अवसर भी है और चुनौती भी।