राम विलास पासवान: राजनीतिक मौसम के भगवान
रामविलास पासवान चले गए, उन्होंने बीमारी से लड़ते हुए अपनी जान गंवा दी, लेकिन उन्होंने दलित समाज की लड़ाई लड़ना और जीतना हमेशा जारी रखा। उनके विरोधियों ने उन्हें अवसरवादी कहा लेकिन उन्हें जमीनी राजनीति का बहुत ज्ञान था, वह लालू यादव की तरह मिट्टी में लाल थे, इसलिए उन्होंने बहुत जल्दी हवा का रुख पकड़ लिया। पिछले 32 वर्षों में 11 बार चुनाव लड़े और उनमें से नौ में जीत हासिल की, बिहार के सबसे बड़े दलित नेता को छह अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल के दौरान विभिन्न मंत्रालयों में कार्यभार संभालने का अनुभव था और वह देश के ऐसे एकमात्र एक राजनेता थे।
लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के अध्यक्ष राम विलास पासवान बिहार की राजनीति के सबसे प्रमुख दलित चेहरों में से एक थे। रामविलास पासवान, राजनीतिक हेरफेर और चालाकी, उचित अवसर पहचान और दोस्त-दुश्मन की कला के विशेषज्ञ भारतीय राजनीति के मौसम वैज्ञानिक थे कहे जाते थे। पासवान पहले से राजनीति की हवा भाप लेते थे, इसे नियति की विडंबना कहते हैं या कुछ और, उन्होंने अपने चश्मे “चिराग” के लिए एक नई राजनीतिक संभावना भी खोल दी थी।
भारत की राजनीति में रामविलास पासवान जी की जगह कोई नहीं ले सकता है, भारत के दलितों के नेता, जिन्होंने 1969 में राजनीति में प्रवेश किया और एक बार विधायक बने, फिर वे दिल्ली की राजनीति करते रहे। 1970 के दशक में राजनीति में प्रवेश करने वाले पासवान ने पहली बार लोकसभा सीट जीतकर साढ़े चार लाख वोटों से जीत दर्ज की और इसे काफी हद तक बरकरार भी रखा। रामविलास पासवान 80 के दशक में एक उभरते हुए दलित और युवा नेता थे। कांग्रेस विरोधी राजनीति से पैदा हुई राजनीति में, यूपी और बिहार ने चौधरी चरण सिंह, बाबू जगजीवन राम, लालू, मुलायम, शरद यादव, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे चेहरों को उभारा। इन नेताओं का देश के विपक्षी नेताओं में भी काफी दबदबा था, यह वो समय था जब अटल बिहारी बाजपेयी जनसंघ और भाजपा के लिए संघर्ष के रहे थे और देश भर में अपने सहयोगियों की तलाश कर रहे थे। तब पासवान पहचान बनाकर दलित नेता के रूप में सामने आए और यह दलित नेता हमेशा सबके साथ जुड़े रहे लेकिन वे विभिन्न दलों और सहयोगियों के साथ चलते रहे किन्तु उस समय भी बसपा से दूरी बनाए रखी। उन्होंने हमेशा दलितों के लिए आवाज उठाई, लड़ते रहे लेकिन उन्होंने कभी भी दलितों को भड़काने की कोशिश नहीं की। उन्होंने हमेशा दलित वर्ग के हितों के लिए आवाज उठाई, जातिगत झगड़ों और कट्टरपंथी जाति की राजनीति से दूर रहे। पासवान, जो छह प्रधानमंत्रियों के साथ एक मंत्री के रूप में लगातार काम करते थे, अपनी राजनीतिक बुद्धि और निर्णय के कारण इस पद पर रहते थे, इसके लिए उन्हें अपने दलित होने की माँग नहीं करनी पड़ी कभी। पासवान किसी भी विवाद में नहीं रहे। न केवल उन्होंने राजनीतिक वर्चस्व के लिए एक महान प्रयास किया, बल्कि वे सभी दलों और देश के सभी बड़े नेताओं के साथ उदारता से काम करते रहे, हमेशा अपनी राजनीति के दम पर, उन्होंने दलित वोट बैंक और अन्य वर्गों के खिलाफ भड़काने वाली राजनीति के बजाय दलितों के लिए उदारता से लड़ाई लड़ी और 40 साल तक संसद में दलितों के हितों की निगरानी करते रहे। कई नेता जो उनके साथ उभरे, वे स्वार्थ और क्षेत्र की राजनीति में उलझकर रह गए, राष्ट्रीय राजनीति में अपनी वो पहचान नहीं बना सके, जिस पर पासवान हमेशा काबिज थे। पासवान का जाना किसी समाज मात्र की नहीं बल्कि भारतीय राजनीति की क्षति है। रामविलास पासवान को श्रद्धांजलि सहित।।