झिरिया का पानी पीने मजबूर, बैगा जनजाति, जिले में निष्क्रीय पीएचई विभाग और सत्ता सुख भोगते क्षेत्र के नेता

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मिनरल वाटर पीने वाले जनप्रतिनिधियों को नहीं ग्रामीणों की सुध

बड़ी सहजता से लिया जाता है जनजाति ग्रामों का पेयजल संकट

 

जनपथ टुडे, डिंडोरी, 28 मई 2021, जिले में पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है। ग्रामीण अंचलों में पीने के पानी को लेकर ग्रामीणजन परेशान है। पीएचई विभाग की अनदेखी से गांवों में हेंड पम्प बंद पड़े है लोग बूंद बूंद पानी के लिए भटक रहे है और विभाग का अमला सिर्फ बहानेबाजी करता दिखाई देता है। जबकि विभाग ग्रामीण अंचल, आदिवासी, जनजाति क्षेत्रो में पेयजल व्यवस्था के नाम पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए के प्रस्ताव बना कर केंद्र और राज्य शासन से आवंटित मद की होली खेलता आ रहा है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार जिले की समनापुर जनपद के बैगा बहुल ग्राम सरईमाल की बैगा जनजाति की महिलाएं पीने के पानी के लिए सूखी हुई नदी में खोदी गई गड्ढें नुमा झिरिया से पीने के लिए पानी निकालकर अपने घर उपयोग के लिए लेकर जाती है। गड्ढे में भरा हुआ यह पानी पीने के काबिल तो नहीं है पर इन जनजाति ग्रामीणों की मजबूरी है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी शासन – प्रशासन उनके लिए शुद्ध और साफ पीने का पानी उपलब्ध नहीं करा सका है। जबकि जिले में पीएचई विभाग के पास न तो फंड की कमी है न साधन और संसाधनों की। हर क्षेत्र में उनका अमला पदस्थ है साथ ही ठेकेदार सेवाएं दे रहे है जिन्हे विभाग मोटी रकम देता है, फिर भी परिणाम जस के तस है। ग्रामीणों को बूंद बूंद पानी के लिए भटकना पड़ रहा है और गंदा पानी पीने को मजबूर है लोग। यह ग्राम तो मात्र उदाहरण है बैगा जनजाति क्षेत्रो में लगभग आधे से अधिक गांवों में यही स्थिति है जहां लोगों को पानी के लिए परेशान होना पड़ता है भटकना पड़ता है। बताया जाता है ठेकेदारों को भुगतान तो चार सौ, पांच सौ फीट खनन का किया जाता है किन्तु हैंडपंपों में पाईप सौ से डेढ़ सौ फीट ही डाला जाता है और गर्मियों में इनका जल स्तर नीचे चला जाता है। वहीं पहाड़ी इलाके में नदिया और नाले भी सूख जाने से ग्रामीण इन जल स्रोतों के आसपास गड्ढे खोद कर पीने का पानी का इंतजाम कैसे भी करते है। इन्हीं गड्ढों में जानवर भी पानी पीते है और यही से जिले के ग्रामीण भी पीने का पानी ले कर जाते है।

पीएचई के पास बहाने सैकड़ों है पर समस्याओं का निदान नहीं

पीएचई विभाग के पास सिर्फ इन समस्याओं के लिए बहुत से बहाने है पर इन ग्रामीण क्षेत्रों में समस्या का निराकरण कैसे हो इसका निदान नहीं है। आजादी के इतने सालों के बाद भी इन जनजाति ग्रामों को चिन्हित नहीं किया जा सका है जहां भू जल स्तर बहुत नीचे चला जाता है। उन ग्रामों में नल जल योजनाएं, कूप खनन क्यों नहीं हो सका? प्रतिवर्ष ऐसे गांवों में पानी उपलब्ध करवाने के लिए शासन से कई लाख रुपए टैंकरों से पानी आपूर्ति के लिए आता है पर हकीकत साफ देखी जा सकती है कि लोग गड्ढों का पानी पीते है जो वे अपने सिर पर ढोते है और यह भी इन्हें बहुत दूरी तय करने का बाद मिल पाता है। जिन गांवों में भू जल स्तर नीचे चला जाता है ऐसे जनजाति बहुल ग्रामों में विभाग ने नल जल योजना क्यों नहीं बनाई जबकि विशेष जनजाति जिन गांवों में निवासरत है वहां प्राथमिक आवश्यकताओं की व्यवस्थाओं की पूर्ति हेतु विशेष मद का भी प्रावधान है। गर्मी का मौसम आधे से अधिक निकल चुका है और यदि कोई प्रयास पीएचई ने किया होता या टैंकर से जल आपूर्ति की जा रही होती तो शायद लोगों के सामने ऐसा संकट नहीं होता। न लोगों को टेंकर से पानी सप्लाई की जा रही है न हैंडपंपों का सुधार हो रहा है तब टैंकर से जल आपूर्ति के लिए खर्च की जाने वाली राशि और ठेकेदार को हैंडपंपों के संधारण के लिए दी जाने वाली लाखों रुपए की राशि क्या सिर्फ फर्जी बिलो के माध्यम से भुगतान की जा रही है? यह सवाल बड़ा है जिसकी जांच होना चाहिए और जिम्मेदार लोगों पर कार्यवाही भी।

बड़ी सहजता से लिया जाता है जनजाति ग्रामों का पेयजल संकट

जिले के ग्रामीण अंचलों और जन जाति क्षेत्रों में व्यापक जल संकट है दर्जनों गांवों में लोग झिरिया का पानी पीने को मजबूर है ऐसी खबरे स्थानीय मीडिया में रोज देखने मिलती है पर पीएचई विभाग और प्रशासन ऐसी खबरों को बड़ी सहजता से लेता है। विभाग बहानेबाजी भरे कारण बता कर कुछ दिनों के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर देता है। वहीं प्रशासन द्वारा अब तक इस तरह की लापरवाही पर कोई कड़ी कार्यवाही न करने से अब तक कहीं कोई ठोस हल नहीं निकला गया है। पीने के लिए पानी उपलब्ध नहीं होना और खुले हुए गड्ढों का गंदा पानी पीना कितना बड़ा संकट है यह बोतल बन्द पानी पीने वालों को समझ आना भी संभव नहीं है।

मिनरल वाटर पीने वाले जनप्रतिनिधियों को भी नहीं परवाह

आदिवासी बहुल जाति जनजाति बहुल जिले के सांसद, विधायक केंद्र और राज्य स्तर की राजनीति कर रहे है बड़े बड़े ओहदे पर नवाजे जा चुके।अधिकतर क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि जो खुद मिनरल वाटर पीने लगे है उन्हें भी जिले के जनजाति लोगों की परवाह नहीं है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पा रहा है और जनप्रतिनिधि इस स्थिति के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के अलावा कुछ कर नहीं सकते। जिला पंचायत, जनपद पंचायत ग्राम पंचायत के प्रतिनिधियों की भी कोई जिम्मेदारी समझ में नहीं आती। किसी को कोई मतलब ही नहीं ग्रामीणों के सामने हर साल आने वाले इस संकट और इतनी बड़ी समस्या से? शासन, प्रशासन, शासकीय अमला, नेता दिन रात किसके! विकास के लिए भागते फिरते है बड़े बड़े आयोजन और घोषणाएं करते है गांवो में पीने के पानी के लिए भटकते इन लोगो की वास्तविक स्थिति से जाहिर हो जाता है।

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