आज भी कायम हैं ’’गाॅव निकासू’’ की प्राचीन परम्परा

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देव सिंह भारती

श्रद्वा, भक्ति या अंधविश्वास

जनपथ टुडे, डिंडोरी, 6 नवम्बर 2020, अमरपुर, आदिवासी संस्कृति और परम्परा में झाड़ फूंक, जादू टोना टोटका और तांत्रिक क्रियाओं का विषेष महत्व हैं। आदिवासी समाज के पूजा पाठ भी तंत्र मंत्र पर आधारित होते हैं। यहाॅ तक कि विभिन्न रोगों और महामारी से बचने के लिए टोना टोटका और तांत्रिक पूजा पाठ का सहारा लिया जाता हैं। 21 वीं सदी में पहुंचने और शिक्षा का गाॅव गाॅव तक प्रसार होने के बावजूद आज भी आदिवासी समाज इलाज के लिए तंत्र मंत्र, टोना टोटका और तांत्रिक अनुष्ठानों पर भरोसा करता हैं।

विभिन्न आदिवासियों, जातियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठान और टोटके किए जाते हैं। महामारियों और बीमारियों से निजात पाने के लिए आदिवासी रीति-रिवाज और परम्परा के तहत धार्मिक एंव तांत्रिक अनुष्ठान ‘गाॅव निकासू’ का चलन आज भी कायम हैं।

 

गाॅवों में दशहरा से शुरू होती हैं प्रक्रिया-

गाॅव निकासू की प्रथा आदिवासी समाज में आदिकाल से निरन्तर चली आ रही हैं। दशहरा के दिन से दीपावली और होली तक ‘गाॅव निकासू’ की क्रिया जिले के प्रायः सभी गाॅवों में की जाती हैं। मान्यता के अनुसार गाॅव को महामारियों, अनिष्टों और विभिन्न सकटों से बचाने के लिए जो तांत्रिक अनुष्ठान किया जाता हैं, उसे गाॅव निकासू कहते हैं। गाॅव निकासू नाम के अनुसार मान्यता हैं कि गाॅव में भूत-प्रेत, भौतिक बाधाओं तथा विभिन्न रोगों के जीवाणुओं की गाॅव से निकासी गुनिया-पण्ड़ा द्वारा की जाती हैं। क्रिया को अंजाम देने वाले गुनिया-पण्डा पुरानी टोकनियों को लेकर गाॅव में घूमते हैं जिसमें ग्रामीणों द्वारा एकत्रित किया गया कूड़ा-करकट, पुरानी झाडू, दीवाल पोतने वाली कूची के अलावा घर की साफ सफाई के काम वाली वस्तुओ को डाल दिया जाता हैं। इस दौरान ग्रामीण पण्डा को यथाशक्ति मुआवजा के तौर पर नगद राशि देते हैं।

मंत्रोच्चार के साथ शुरू होता हैं अनुष्ठान- गाॅव निकासू की क्रिया करने वाला पण्डा रात्रि के तीसरे पहर में पहले तांत्रिक अनुष्ठान करने के लिए शराब, काली मुर्गी, काली चूड़ी, काली टिकली, कठला, रार, झण्ड़ा और नारियल आदि लेकर गाॅव की सीमा में पहुंच जाता हैं। जहाॅ पर मंत्रोच्चार के साथ तांत्रिक क्रिया की शुरुआत की जाती हैं। उल्टे पंख वाली काली मुर्गी को इस दौरान दाने खिलाए जाते हैं और फिर पण्ड़ा उसे गाॅव की सरहद के पार कर देता हैं। मान्यता के अनुसार सरहद पार मुर्गी छोड़ देने से गाॅव की तमाम बीमारियाॅ, महामारी, जादू-टोना आदि उसी के साथ चली जाती हैं। तत्पश्यात देवी-देवताओं को शराब और मुर्गा का भोग लगाकर प्रसाद का वितरण किया जाता हैं। अलग-अलग गाॅवों में गाॅव निकासू की क्रिया अलग-अलग ढंग से भी की जाती हैं।

 

ग्रामीण करते हैं झाड़-फूंक पर विश्वास

-आदिवासी बहुल जिले में आदिवासी संस्कृति और परम्पराओं का प्रभाव अधिक हैं। इसी कारण गावों में आज भी व्यक्ति बीमार होने पर सबसे पहले झाड़-फूंक का सहारा लिया जाता हैं। यहाॅ तक कि विषेले जीव-जंतुओं के काटने नर भी गुनिया-पण्ड़ा ओझा आदि जहर उतारने के लिए बुलाए जाते हैं। गाॅव निकासू की क्रिया कुछ क्षेत्रों में दिन के समय और कुछ में रात के समय गुनिया-पण्ड़ा द्वारा संपन्न की जाती हैं। समाज के रक्षा और सुरक्षा के लिए आदिकाल से की जा रही गाॅव निकासू की परम्परा आज भी जिले में प्रथा के अनुसार संपन्न कराई जाती हैं।

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