शिवराज सरकार में ज्योतिरादित्य सिंधिया का राजमाता जैसा रुतबा

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प्रदेश के राजनीतिक इतिहास दोहराता दिखाई दे रहा है

 

राजमाता की तरह भाजपा में मुख्य भूमिका होगी महाराज की?

जनपथ टुडे, प्रदेश डेस्क, मार्च, 28, 2020

भारतीय जनता पार्टी की संस्थापक श्रीमती विजया राजे सिंधिया जिन्हें भाजपा में सम्मान के साथ ‘राजमाता’ कहा जाता था की बेटी यशोधरा राजे सिंधिया लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी में है और खुद को राजमाता का उत्तराधिकारी बताती रही हैं परंतु भाजपा में यशोधरा राजे सिंधिया को कभी वह स्थान नहीं मिल पाया जो विजयाराजे सिंधिया को मिलता था लेकिन शिवराज सिंह सरकार में ज्योतिरादित्य सिंधिया का रुतबा बिलकुल वैसा ही नजर आ रहा है जैसा कि द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार में राजमाता विजयराजे सिंधिया का हुआ करता था।

मध्य प्रदेश में इतिहास खुद को दोहरा रहा है, करीब 52 वर्ष पहले द्वारिका प्रसाद मिश्र की कांग्रेसी सरकार गिराने के बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने गोविंद नारायण सिंह की सरकार में जिस तरह अपना असर कायम किया, अब शिवराज सरकार में वही असर राजामाता के पौत्र व पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का दिखने लगा है। शुरुआत सिंधिया के पसंदीदा अफसर की तैनाती से हुई है और यह संकेत हैं कि उनके इलाकों में उनकी मर्जी के ही अफसर तैनात होंगे।

 

संदीप माकिन को वापस बुला कर कमलनाथ को करारा जवाब दिया

ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा देने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने उनके पसंदीदा आईएएस अफसर संदीप माकिन को कमिश्नर नगर निगम ग्वालियर के पद से हटा दिया था। सत्ता बदलने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया सबसे पहले संदीप को वापस बुलाया, संदीप की बहाली ज्योतिरादित्य सिंधिया का कमलनाथ को करारा जवाब है।

 

पहले EOW में जांच वाली फाइल बंद कराई, फिर सुशोभन बनर्जी IPS को हटाया

तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने ज्योतिरादित्य सिंधिया पर दबाव बनाने के लिए 2014 में उनके खिलाफ की गई एक शिकायत की फाइल को फिर से खुलवा दिया था। बताया जाता है कि EOW के प्रभारी डिप्टी जनरल सुशोभना बनर्जी ने कमलनाथ को इसके बारे में जानकारी दी थी। सत्ता परिवर्तन के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सबसे पहले बनर्जी से उस फाइल को
क्लोज करवाया जिसे कमलनाथ की अनुमति से ओपन किया गया था फिर श्री बनर्जी का तबादला कर दिया गया।

प्रदेश भाजपा में राजमाता की तरह मुख्य भूमिका में होंगे महाराज ??

अब सवाल ये भी उठते है कि क्या महाराज मतलब ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका भी प्रदेश भाजपा में उसी तरह की होगी जिस तरह से राजमाता की थी। अब तक शिवराज सरकार में जिस तरह से सिंधिया का असर दिखाई पड़ रहा है उससे तो यही लगता है कि महाराज की भूमिका उससे कहीं अधिक भी हो सकती है, पहली वजह तो ये है राजमाता राजनीति में पार्टी के संसाधनों की पूर्ति की वजह से महत्त्व रखती थी किन्तु उनकी राजनीतिक भूमिका बहुत अधिक नहीं थी अपनी बेटी यशोधरा, भाई ध्यानेंद्र सिंह, भाभी माया सिंह और खुद के अलावा अधिक बड़ा राजनीतिक कुनबा कभी राजमाता ने नहीं जोड़ा और उस दौर में भाजपा के नेताओं की भीड़ महल में नहीं लगा करती थी यहां तक कि भाजपा के बड़े सबसे प्रमुख और लोकप्रिय नेता अटल बिहारी बाजपेई भी ग्वालियर के थे और वे अक्सर ग्वालियर आते भी रहते थे किन्तु कभी महल में उनकी उपस्थिति नहीं देखी गई न ही उनके किसी पारिवारिक कार्यक्रम में राजमाता की शिरकत होती थी, यहां तक कि बाजपेई जी की भांजे जो की भाजपा की राजनीति में सक्रिय रहे और प्रदेश सरकार में लगातार मंत्री भी रहे उनकी भी महल से सदैव दूरी रही, राजमाता के समय भाजपा में सिंधिया घराने की भूमिका साइलेंट पार्टनर की ही तरह रही मौकों पर राजमाता को सम्मान मिलता रहा किन्तु राजमाता का चंबल या फिर प्रदेश की राजनीति में खास दखल कभी नहीं रहा, आज चंबल क्षेत्र के जीतने भी नेता भाजपा के महत्वपूर्ण पदों पर है उनमें से कोई भी महल का आदमी नहीं है चाहे वो जयभान सिंह पवैया हो नरेंद्र सिंह तोमर हो, नरोत्तम मिश्रा हो या अनूप और बी डी शर्मा हो, आज कोई भी ऐसा नेता भाजपा में नहीं है जो महल या फिर राजमाता के संपर्क में रहा हो , राजमाता ने सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा, परिवार और सुरक्षात्मक राजनीति की इसके अलावा उन्होंने कभी पार्टी में दखल नहीं दिया और अपना सम्मान बचाए रखा। किन्तु महाराज अपने पिता की विरासत और राजनीतिक सीख के साथ बढ़ते हुए नेता है और उन्होंने चंबल में खासा राजनीतिक रसूख बना कर रखा है उनके अपने जो भी लोग है सब उनके व्यक्तिगत सम्बन्धों और पिता की विरासत से अलग लोग है माधवराव सिंधिया के करीबी अधिकतर नेता अब महल से दूर किए जा चुके है और उनके राजनीतिक अस्तित्व भी न के बराबर बचे है, अपनी इस नई टीम का समर्पण उन्होंने बेगलुरु में बैठा कर दिखा भी दिया कि उनके लोगो ने अपने राजनीतिक भविष्य को दाव पर लगा दिया पर महाराज के प्रति आस्था से डिगे नहीं। आज के दौर में ये कठिन है जब समय देखकर सत्ता अच्छे अच्छो की आस्था को मिनटों में बदल देती है। २२ विधायकों को समेटकर रखने वाले महाराज प्रदेश की लगभग दस फीसदी के मालिक है और भाजपा से हाथ मिलाने के बाद उनको इससे भी अधिक सफलता मिल सकती है जो भाजपा के खाते में जाने से भाजपा की स्थिति भी काफी मजबूत होगी, जबकि भाजपा के पास अब तक कोई ऐसा नेता नहीं है जो इस आंकड़े तक पहुंच सके भाजपा के विधायक पार्टी के कारण जीतते है किसी प्रदेश के नेता के नाम पर इनको जीतना कठिन है तब भाजपा को एक जादुई नेता का मिल जाना कोई कम बात नहीं है और भाजपा उसका लंबे समय तक उपयोग कर प्रदेश की सत्ता में बनी भी रह सकती है। उसके अलावा सिंधिया में ऊर्जा, ग्लैमर और राजनीतिक सोच समझ कर भाषा शैली है जिसका इस्तेमाल पूरे प्रदेश में बेहतर ढ़ंग से किया जा सकता है पिछले चुनाव में महाराज की मेहनत से कांग्रेस को फायदा मिला ये भी जाहिर है, ऐसे में भाजपा को उन्हें आगे बढ़ाने में कोई हर्ज नहीं है वहीं भाजपा के पास अधिकतर जमे हुए नेता रिटायरमेंट की स्थिति में है और प्राय भाजपा ऐसे नेताओं का संगठन में अधिक उपयोग करती है। कमलनाथ की सरकार गिराने से लेकर भाजपा की सरकार बनने के बाद तक कहीं कोई मतभेद और मंथन कि बजाए सारा कुछ इशारों पर ही होता दिखाई दे रहा है जिससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ने के पहले ही सब कुछ थी ढ़ंग से साफ साफ भाजपा के साथ तय कर लिया था और वो उससे मुकरने की स्थिति में नहीं है महाराज के समर्थक और क्षेत्र की जनता उनके प्रति कितनी अडिग है इसका अनुमान भाजपा को भी है और यूपी चुनाव होने के बाद २२ सिंधिया समर्थको के अलावा २और सीट पर भी महाराज के साथ मिल कर भाजपा आसानी से जीत सकेगी तब मात्र २ और सीटों पर होने वाले चुनाव में भी उसका वर्चस्व कायम हो सकता है और बहुमत सेभाजपा आगे निकल सकती है तब महाराज को नाराज कर भाजपा किसी संकट को आमंत्रण क्यों देगी? जैसा कि चर्चा में है कि शिवराज सरकार के मंत्रिमंडल में सिंधिया समर्थक उं विधायकों की भी ताजपोशी होगी जो फिलहाल विधायक नहीं है उनकी संख्या आधा दर्जन से अधिक ही सकती है जो साफ करता है कि भाजपा में सिंधिया का जितना रसूख है उसे ख़तम करना कठिन है और भाजपा आने वाले समय में भी महाराज की भूमिका को कमकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। सिंधिया के भाजपा में आने पर चर्चा आई थी प्रभात झा के द्वारा स्तीफा दिए जाने की किन्तु बाद में इसकी पुष्ठि नहीं हो सकी इस तरह के कुछ और लोग भी नाराज हो सकते है पर इनका प्रभाव और लोकप्रियता चंबल में जाहिर है सीधे जनता के बीच जाकर खुद को नेता न साबित कर पाने वाले झा जैसे नेताओ को संगठन में भूमिका और राज्यसभा में पार्टी के बूते एंट्री दिला दी जाती है तब इनका विरोध करने महाराज की सेहत के लिए अधिक चिंतनीय नहीं है जो महाराज पूरी भाजपा को चंबल में छकाने का बूता रखते हो और सरकारों के भविष्य के फैसले जिस पारिवारिक वजूद से हो जाते हो भाजपा उससे पंगा लेने से बेहतर उसका और अधिक लाभ उठाने और खुद को मजबूत करने में ही करेगी इसके लिए पार्टी को कुछ अपने पच से चुके नेताओ की बलि चड़ाना भी पड़े तो वो भी चढ़ा देगी और फिलहाल शिवराज सिंह का भी अंदरुनी मकसद चंबल के भाजपा नेता नरेंद्र सिंह तोमर को काउंटर करना भी है जिन्होंने शिवराज सिंह के साथ युवा मोर्चा से राजनीति शुरू की थी और अच्छे मित्र होने के बाद भी अब वो बात नहीं रह गई है और केंद्र की राजनीति में जाने के बाद राजनाथ सिंह के साथ मिलकर टी तोमर कई बार प्रदेश की कमान लेने की कोशिश कर चुके है कमलनाथ की विदाई के बाद भी टी तोमर ने बड़े प्रयास किए थे और आखिर में उनका नाम फाइनल होना बताया जा रहा था पर यह केवल उनकी कोशिश थी जबकि सिंधिया शिवराज समझौते में साफ साफ शिवराज की ताजपोशी तय थी और ग्वालियर के होते हुए भी तोमर सिंधिया से बहुत दूर है भले ही अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में वे राजमाता और महल के करीबी होने के प्रयास करते रहे, आगे भी शिवराज चंबल में नरोत्तम मिश्रा, नरेंद्र सिंह को पीछे रखने के लिए सिंधिया को कवच बनाए रखेंगे और महाराज भाजपा ने कांग्रेस की तरह और राजमाता की तरह भूमिका में होगे क्योंकि उनके पास अपनी राजनीतिक पूजी है।

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